पूज्य नागदेवता
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सूर्य, गौ, वृक्ष, नदी की तरह सर्प भी प्रत्यक्ष देवता हैं। प्राय: बाकी देवता जिनकी परिकल्पना हमारे शास्त्रों ने की है उनका स्वरूप कल्पित है किंतु सर्प साक्षात दर्शन देते हैं। जल की भांति सर्प की उपस्थिति धरती से आकाश तक स्वीकारी गई है। संभवत: पूरी सृष्टि पर एकमात्र सर्प ही हैं जो जल, थल, वृक्ष, झाड़ियों, पहाड़ों, बर्फ, बिल, खेत आदि हर स्थान पर अपना अस्तित्व सिद्ध करते हैं। इतिहास में नाग राजाओं का उल्लेख है तो पुराणों में नाग कन्याओं से कई नायकों-प्रतिनायकों के विवाह या प्रेम संबंधों की चर्चा आती है। नागों का लोक पाताल माना गया है।

इतिहास और पुराण सहित धर्म की सभी धाराओं तथा ज्ञान की शाखाओं में सर्प की चर्चा किसी न किसी रूप में उपलब्ध है जो सर्पो की चिरकालिकता को प्रदर्शित करती है। यही कारण है कि सर्प प्रारंभ से पूजनीय माने गए हैं और उनकी पूजा के निमित्त भारतीय मनीषा में श्रावण शुक्ल पंचमी का दिन निश्चित किया गया है। पौराणिक, ऐतिहासिक संदर्भो के साथ सर्प के रहस्यमय शारीरिक स्वरूप और उसकी विषधारी वृत्ति ने कालांतर में कई लौकिक-अलौकिक, रहस्य-इंद्रजाल से भरी कथाओं को जन्म दिया और लोकमानस में सर्प के प्रति एक अजीब से भय को भी स्थापित कर दिया। परिणाम यह कि आज भी सर्प हमारे लिए भय, आश्चर्य और रहस्य का केंद्र बने हुए हैं। इसीलिए धर्मालु भारतीय सर्प की पूजा कर उसके संभावित क्रोध से मुक्ति के उपाय खोजते हैं।

श्रावण शुक्ल पंचमी को नागपंचमी के रूप में सर्प की पूजा के पीछे हमारी अर्थव्यवस्था का दर्शन भी जुड़ा हुआ है। ये दिन बारिश के होते हैं और इसी दौरान खेतों में काम चलता है। आषाढ़ की रिमझिम वर्षा धरती को भिगों पाती है लेकिन जब श्रावण में वर्षा अपना रंग दिखाती है और सर्प के बिल पानी से भर जाते हैं तब सर्प बिल से निकलकर खेतों में आ जाते हैं। तब हमारे सामने दो विकल्प होते हैं - भयभीत होकर सर्प को मार दिया जाए या बड़ी होती फसल की कीटों-चूहों से रक्षा के लिए उसे पर्यावरण का एक अभिन्न अंग स्वीकार कर छोड़ दिया जाए। भारतीय दूसरा विकल्प स्वीकारते हैं और सर्प की पूजा कर उसे अपना मित्र बना लेते हैं। इसीलिए इन्हीं दिनों सर्प की पूजा पंचमी के बहाने की जाती है।

जहां तक ज्योतिष का प्रश्न है, सर्प यहां भी उपस्थित हैं। नवग्रहों में राहु के दोष से पीड़ित सर्प का पूजन करते हैं। ज्योतिष कहता है कि हर ग्रह के दो देवता होते हैं। उदाहरणार्थ सूर्य के अधिदेवता ईश्वर हैं और प्रतिदेवता अग्नि। ठीक इसी तरह राहु के अधिदेवता काल और प्रतिदेवता सर्प माने गए हैं। यही कारण है कि जिन लोगों की कुंडली में राहु के दोष होता है उन्हें अधिदेवता काल और प्रतिदेवता सर्प की पूजा कर कालसर्प दोष को दूर करने का उपाय करना पड़ता है। राहु दोष में जिस कालसर्पदोष की चर्चा है उसका आशय है कि यदि वह दोष है तो मनुष्य का स्वभाव चंचल हो जाता है। यानी उसके कार्य विघ्न वाले होते हैं और उसकी निर्णय क्षमता प्रभावित होती है। तब सर्पदोष के निदान के लिए सर्प के उपाय सुगंधित श्वेत वस्तुएं और नैवेद्य चढ़ाकर दोष का शमन करने की परंपरा है।

कहते हैं यदि किसी की कुंडली में कोई दोष हो तो उसे साक्षात ब्रrा भी दूर नहीं कर सकते, किंतु उपायों के माध्यम से उसका शमन अवश्य किया जा सकता है। आशय है कि ज्योतिष में सर्प है। राहु के साथ भी और नक्षत्रों के संदर्भ में भी। 27 नक्षत्रों में अश्लेषा नक्षत्र के देवता के रूप में भी सर्प उपस्थिति दर्ज कराते हैं। अश्लेषा का स्वामी सर्प ही माना गया है। ठीक इसी तरह बारिश के दिनों में सूर्य जब रोहिणी से हस्त नक्षत्र के बीच गमन करता है तो इन नक्षत्रों में एक का वाहन सर्प भी होता है और इन्हीं वाहनों से ज्योतिषी वर्षा का होना, न होना, कम या ज्यादा होना आदि का आकलन करते हैं।

इतिहास, पुराण, वास्तु, धर्म, ज्योतिष आदि के संदर्भ भले किसी ठोस वैज्ञानिक आधार के साथ सर्प के स्वरूप, स्वभाव पर फोकस न करें, लेकिन नागपंचमी को सर्पपूजन की परंपरा उसके प्रति आस्था और उसे अपने प्राकृतिक मित्र समझने की परंपरा के पीछे ठोस आधार अवश्य हैं और वह यह कि सर्प भी इस सृष्टि की प्राणी हैं और सृष्टि के सौदंर्य का अंग। हम लाठी उठाएं तो वह शत्रु हैं और शीश झुकाए तो मित्र, देवता। बेहतर होगा हम उसे मित्र मानकर देवता के आसन पर ही रखकर पूजे।

नाग देवता की आंखों देखी कहानी

कहानी कोई बनावटी नही है,एक हकीकत का बयान है,जिसे मैने अपनी आंखों से देखा है,मेरी कुन्डली मे कालसर्प दोष है,कई प्रकार के प्रयोग जैसे भी वैदिक रीति से किये जाते है किये लेकिन कोई बडा असर समझ में नही आया,हमारे एक बुजुर्ग ने कहा कि कालसर्प दोष एक प्रकार का पितर दोष है जो पितरों के असंतुष्ट होने के कारण होता है,अगर किसी प्रकार से बद्रीनाथ से अलकनन्दा (गंगा जी का प्रथम उदगम नाम) से पानी लेकर रामेश्वरम में चढाया जाये,और बद्रीनाथ में ही "ब्रह्मकपाल" नामक स्थान पर पितरों के नाम से पिंड-दान किये जायें तो काफ़ी राहत मिल सकती है,मै कोई धनवान तो हूँ नही जो फ़टाफ़ट धन का उपयोग कर गाडी आदि से बद्रीनाथ जा सकूं,जयपुर से बद्रीनाथ जाने के लिये पहले दिल्ली जाओ फ़िर वहां से हरिद्वारा और वहां से बद्रीनाथ का साधन मिनी बसों के रूप में हासिल होता है,सो किराये का बन्दोबस्त करने के बाद हम दोनो पति पत्नी बद्रीनाथ के लिये प्रस्थान कर गये,ऋषिकेश के आगे जाने पर पता लगा कि पहाड खिसक गया है और रास्ता बन्द है,इसलिये हम लोग उस जाने वाली बस के साथ एक सुनसान स्थान पर नौ घंटे पडे रहे और रास्ता साफ़ होने पर आगे गये,सुख दुख सहते हुये बद्रीनाथ जा पहुंचे,बहुत सर्दी थी,जयपुर में तो तापमान उस समय पैंतालीस डिग्री का था,लेकिन वहां पर तापमान चार डिग्री के आसपास था,गर्म कपडे लेजाने से कोई विशेष कठिनाई नही हुयी,और आराम से बद्रीनाथ का दर्शन करने के बाद ब्रह्मकपाल पर पितरों के नाम के पिंड-दान करने के बाद अलकनन्दा का जल लेकर हम लोग वापस रामेश्वरम जाने के लिये तैयार हुये,दिल्ली से चैन्नई के लिये इन्डिगो नामक एयर कम्पनी से टिकट बुक करवाने में मुम्बई के पास के एक शिष्य संजय पंवार ने मेरी सहायता की और हम लोग नवरात्रा मे ही रामेश्वरम जा पहुंचे,वहां पर पुजारी से यह कहने पर कि यह पानी बद्रीनाथ से लाया गया है,वह बहुत खुश हुया और पूरे मन्दिर में एक बार तो हर हर की आवाज के साथ पूरा मन्दिर गूंज गया,आवाज को सुनकर रोंगटे खडे हो गये,बहुत आनन्द आया कि बद्रीनाथ के जल की रामेश्वरम में बहुत अधिक महिमा है। भगवान शिव जी से प्रार्थना की कि हे ! प्रभु मेरा यहां बार बार आना मुश्किल है,कोई ऐसा उपाय करो कि मुझे बार बार यहां आना न पडे। यह प्रार्थना करने के बाद हम दोनो पति पत्नी ने मानस धनुषकोटि जाने का बनाया,रामेश्वरम मन्दिर के पूर्वी गेट के बाहर से ही तीन नम्बर बस धनुषकोटि के लिये मिलती है,किराया कोई खास नही है केवल प्रति यात्री तीन रुपया है,एक बार तो तमिलनाडु सरकार के लिये नतमस्तक होना पडता है कि जनसेवा के मामले में वह सरकार काफ़ी लचीली है। रामेश्वरम मन्दिर से धनुषकोटि की दूरी सत्रह किलोमीटर है,हम दोनों धनुष कोटि जाने के लिये मुख्य बस स्टेंड पर जा पहुंचे वहां से जहां पर दोनो समुद्र मिले हैं वहां तक जाने के लिये मछली वाली गाडियां कच्चे रास्ते मे जाने के लिये मिलती है,वे पचास रुपया प्रति यात्री लेती है लेकिन सात किलोमीटर का रेत में जाने का सफ़र बहुत अधिक महत्व रखता है। हम दोनो धनुषकोटि मुख्य समुद्रों के संगम पर जा पहुंचे,चूंकि मुझे तैरना आता है इसलिये समुद्र में नहाने से मैं अपने को नही रोक सका और समुद्र में नहाने के लिये कूद गया,बडी बडी लहरें आ रहीं थी और किनारों पर टकराकर अपनी शक्ति को समाप्त कर रहीं थी,मैं भी अपने आवेश में समुद्र में कूद गया,नहाने लगा,नमकीन पानी मुंह मे जाने लगा लेकिन समुद्र की ठंडक मन को अच्छी लग रही थी इसलिये आराम से नहाने लगा,अचानक लहर के साथ एक काली सी चीज आकर मेरे पास पहुंची मैने उसे उत्सुकतावश हाथ मे ले लिया,देखा तो वह एक सांपों की लिपटी हुई लकडी की मूर्ति ही थी,झटपट बाहर आया,देखा तो वास्तव में पांच सांपों के अन्दर उन्नीस सांप एक साथ लिपटे थे,लेकिन लकडी के रूप में थे,मैने अपनी पत्नी को दिखाया पहले तो पत्नी ने कहा कि समुद्र में ही बहा दो,लेकिन मैने ऐसी मूर्ति नही देखी थी इसलिये लोभ से अपने पास रख ली और वापस लेकर रामेश्वरम तथा वहां से घर लेकर आया,वह मैने अपने पूजा स्थान में रख ली है उसकी फ़ोटो मैं नीचे लगा रहा हूँ,आप देखिये क्या यह संसार में सम्भव है कि इस प्रकार की सांपों की मूर्ति मिल सकती है।
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