मास अयन योग करण विचार

मास अयन ऋतु योग करण तिथि नक्षत्र राशि एवं विशिष्ट योग

मास ज्ञान

शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से कृष्ण पक्ष की अमावस्या की समयावधि को चन्द्रमास तथा संक्रांति से दूसरी संक्रांति तक की अवधि को सौरमास कहा जाता है,तीस दिन की समयावधि को सावन मास तथा चद्रमा के अश्विनी आदि नक्षत्र चक्र के भ्रमण काल को नक्षत्रमास कहा जाता है।

विशेष

एक वर्ष में बारह महीने होते है जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार है:- चैत्र बैसाख ज्येष्ठ आशाढ श्रावण भाद्रपद अश्विन कार्तिक मार्गशीर्ष पौष माघ फ़ाल्गुन.

अयन और ऋतु ज्ञान

शिशिर बसन्त तथा ग्रीष्म इन तीनो ऋत्यों में सूर्य उत्तरायण होते है,यह समय देवताओं का दिन होता है,वर्षा शरद और हेमन्त इन तीन ऋत्यों मे सूर्य दक्षिणायन होते है यह समय देवताओं की रात्रि होती है। सूर्य जब मकर तथा मुक्भ राशि मे संचरण करते है तब शिशिर ऋतु होती है,मीन और मेष के सूर्य मे बसन्त ऋतु वृष तथा मिथुन के सूर्य में ग्रीष्म ऋतु कर्क तथा सिंह के सूर्य में वर्षा ऋतु कन्या तथा उला के सूर्य में शरद ऋतु तथा वृश्चिक और धनु के सूर्य में हेमन्त ऋतु होती है। विवाह देव प्रतिष्ठा यज्ञोपवीत दीक्षा मुण्डन आदि कार्य उत्तरायण सूर्य में शुभ तथा दक्षिणायन में अशुभ होते है।

क्षय मास तथा मलमास का ज्ञान

जो महीना सूर्य संक्रान्ति से रहित हो उसे मलमास कहते है,तथा जिस महीने में दो संक्रान्ति हो उसे क्षयमास कहते है,क्षयमास कभी कभी ही पडता है,क्षय मास कार्तिक मार्गशीर्ष तथा पौष इन तीन महीनो में होता है,अन्य महीनो में नही। जिस वर्ष में क्षयम मास होता है उस वर्ष में मलमास भी पडते है।

योगों के नाम

योग सत्ताइस है उनके नाम इस प्रकार है- विषकुम्भ प्रीति आयुष्मान सौभाग्य शोभन अधिगण्ड सुकर्मा धृति शूल गण्ड वृद्धि ध्रुव व्याघात हर्षन वज्र सिद्धि व्यतीपात वरीयान परिध शिव सिद्ध साध्य शुभ शुक्ल ब्रह्म एन्द्र तथा वैधृति। यह सभी योग अपने अपने नाम के अनुसार ही फ़ल देने वाले होते है।

करणो के नाम

करण की जानकारी के लिये शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से तिथि संख्या को दो से गुणा करके घटायें,फ़िर सात का भाग दें,यदि एक शेष बचे तो बव करण दो बचे तो बालव तीन बचे तो कौलव चार बचे तो तैतिल पांच बचे तो गर छ बचे तो वणिज और सात बचे तो विष्टि अर्थात भद्रा नामक करण होता है यह सभी करण चर संज्ञक होते है। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्ध में शकुनि अमावस्या के पूर्वार्ध मे नाग तथा उतरार्ध मे चतुष्पद तथा शुक्ल परतिपदा के पूर्वार्ध में किंस्तुघ्न नामक चार करण स्थिर संज्ञक होते है। शुक्र्ल पक्ष की प्रतिपदा के उत्तरार्ध में करण का पूर्वोक्त क्रम बव आदि पुन: आरम्भ हो जाता है।

तिथियों के नाम

प्रतिपदा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी अष्टमी नवमी दसमी एकादशी द्वादशी त्रयोदशी चतुर्दशी पूर्णिमा यह शुक्ल पक्ष की तिथियों के नाम है,इन्हे क्रम से एक से पंद्रह अंको के रूप में लिखा जाता है,कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से चतुर्दशी तक की तिथियों को समान नामो से जाना जाता है,केवल अन्तिम तिथि को अमावस्या कहा जाता है और उसे तीस के अंक से प्रदर्शित किया जाता है। शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की कलायें क्रमश: बढने वाली होती है और कृष्ण पक्ष में क्रमश: घटने वाली होती है तब अमावस्या को चन्द्रमा नही दिखाई देता है।

कृत्य विशेष में निषिद्ध तिथियां

षष्ठी को तेल अष्टमी को मांस चतुर्दशी को क्षौर कर्म अमावस्या को स्त्री प्रसंग वर्जित है। त्रयोदशी दसमी और द्वितीया को उबटन लगाना और नवमी सप्तमी अमावस्या को आंवले का तेल नही लगाना चाहिये।

तिथियों की नन्दा आदि की संज्ञायें

नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा तिथियों की ये पांच संज्ञायें है,प्रतिपदा से आरम्भ करके तीन तीन तिथियों को गणना करने से इन्हे क्रमश: जानना चाहिये।

भद्रा करण विचार

कृष्ण पक्ष की तृतीया एवं दशमी तिथि के पूर्वार्ध मे तथा सप्तमी और चतुर्दशी तिथि के पूर्वार्ध में भद्रा रहती है इसी प्रकार से शुक्ल पक्ष की एकादशी और चतुर्थी तिथि के पूर्वार्ध मे एवं अष्टमी तथा पूर्णिमा तिथि पूर्वार्ध में भद्रा रहती है।

विशेष

भद्रा संज्ञक तिथि से यह भद्रा संज्ञक करण भिन्न है,इसे विशिष्टि भी कहते है,भद्रा तिथि एवं भद्रा करण के अन्तर को ध्यान में रखना चाहिये।

नक्षत्राचार ज्ञान

पुनर्वसु मृगशिरा आर्द्रा ज्येष्ठा अनुराधा हस्त पूर्वाषाढा उत्त्राषाढा और मूल ये नौ नक्षत्र सूर्य से दक्षिणाचारी है,कृत्तिका रोहिनी पुष्य चित्रा आश्लेषा रेवती शतभिषा धनिष्ठा और श्रवण ये नौ नक्षत्र मध्यमचारी है,अश्विनी भरणी स्वाती विशाखा पूर्वाफ़ाल्गुनी उत्तराफ़ाल्गुनी मघा पूर्वाभाद्रपद ये नौ नक्षत्र उत्तराचारी है।

नक्षत्रों की चर आदि संज्ञायें

रोहिणी और तीनो उत्तरा नक्षत्र ध्रुव संज्ञक है,स्वाती पुनर्वसु श्रवण धनिष्ठा और शतभिषा ये नक्षत्र चर तथा चल संज्ञक है,मघा तीनो पूर्वा और भरणी ये नक्षत्र उग्र तथा क्रूर संज्ञा वाले है,विशाखा तथा कृतिका ये नक्षत्र मित्र तथा साधारण संज्ञक है,पुष्य हस्त अश्विनी और अभिजित ये नक्षत्र लघु तथा क्षिप्र संज्ञक है। चित्रा अनुराधा रेवती और मृगशिरा ये नक्षत्र मृदु तथा मैत्र संज्ञक है। आशेल्षा ज्येष्ठा आर्द्रा और मूल ये नक्षत्र तीक्ष्ण और दारुण संज्ञक है। उकत नक्षत्रों के अनुरूप ही कार्य करना चाहिये।

नक्षत्रों की तिर्यकमुखादि संज्ञायें

रेवती अश्विनी ज्येष्ठा अनुराधा और पुनर्वसु यह पांच नक्षत्र तिर्यक मुख वाले है,इनके अन्दर वृक्षो को लगाना व्यवसाय को शुरु करना किसी इन्जीनियरिन्ग वाले कार्य को करना यात्रा करना सर्वसिद्धिदायक माने जाते है। तीनो पूर्वा मघा आश्लेषा विशाखा कृत्तिका भरणी और मूल यह नौ नक्षत्र अधोमुखी कहलाते है,इनमें कुंआ खोदना तालाब का बनाना जमीन के काम उग्र कार्य गड्डा या सुरंग बनाना खोदना तथा लडाई मुकद्दमा आदि शुरु करना शुभ होता है। तीनो उत्तरा पुष्य रोहिणी आर्द्रा श्रवण धनिष्ठा और शतभिषा यह नौ नक्षत्र ऊर्ध्व मुख है,इन नक्षत्रों में भवन की छत बनाना मंदिर का छत्र चढाना ध्वजा लगाना घर के या व्यवसाय के ऊपर प्रकाश लगाना रोशनी आने का कारण पैदा करना हवाई यात्रायें करना सैटेलाइट और इसी प्रकार के कार्य करना मोबाइल टाबर लगाना आदि फ़लदायी है इन नक्षत्रों में राज्याभिषेख उत्तम फ़लदायी होता है,चुनाव के लिये टिकट खरीदना शपथ लेना स्कूल की पढाई शुरु करना आदि कार्य भी उत्तरोत्तर वृद्धि देने वाले है।

राशियों के नाम

मेष वृष मिथुन कर्क सिंह कन्या तुला वृश्चिक धनु मकर कुम्भ मीन यह बारह राशियां है और इन्हे क्रम से १ से १२ तक के नम्बरों मे लिखा जाता है।

राशियों की संज्ञायें

मेष सिंह धनु का आखिरी भाग और मकर का शुरु का भाग चार पैर की संज्ञा रखने वाली राशियां है,कर्क वृश्चिक कीडे मकोडे की संज्ञक है,मकर का आखिरी हिस्सा तथा मीन राशि यह पानी मे रहने वाले जीवों की संज्ञा को बताने वाली राशियां है,मिथुन तुला कुम्भ कन्या धनु का शुरु का हिस्सा यह दो पैर के लिये जाना जाता है।

राशियों के स्वामी

मेष और वृश्चिक का स्वामी मंगल है,मेष के लिये केवल सोच को रखने वाला और वृश्चिक के लिये करके दिखाने वाला माना जाता है,वृष और तुला राशि का स्वामी शुक्र है,वृष राशि में दिखाने वाला और तुला राशि में सोचने वाला माना जाता है,मिथुन और कन्या राशि का स्वामी बुध है,मिथुन में सोचने वाला और कन्या में करके दिखाने वाला माना जाता है,कर्क राशि का स्वामी चन्द्रमा है,शुक्ल पक्ष में दिखाने वाला और कृष्ण पक्ष में सोचने वाला माना जाता है,सिंह राशि का स्वामी सूर्य है,उत्तरायण में करके दिखाने वाला और दक्षिणायन मे सोचने वाला माना जाता है,धनु और मीन राशि का स्वामी गुरु है,मीन में सोचने वाला और धनु में करके दिखाने वाला माना जाता है,मकर और कुम्भ का स्वामी शनि है,मकर में दिखाने वाला और कुम्भ मे सोचने वाला माना जाता है,कन्या राशि को राहु का घर भी कहा जाता है,और मिथुन राशि राहु की उच्च राशि है,धनु नीच की राशि है,केतु हमेशा राशि से एक सौ अस्सी डिग्री की दूरी पर रहता है। शुक्र मीन राशि का उच्च का माना जाता है,सूर्य मेष राशि का उच्च का माना जाता है,शनि तुला राशि का उच्च का माना जाता है।

राशियों के रंग

मेष का लाल वृष का क्रीम कलर मिथुन का हरा कर्क का गुलाबी और सफ़ेद कन्या का चित्र विचित्र सिंह का गहरा गुलाबी तुला का सफ़ेद वृश्चिक का कत्थई धनु का सुनहला मकर का गहरा पीला कुम्भ का विचित्र वर्ण मीन का मछली जैसा रंग होता है।

नक्षत्रानुसार राशि क्रम

अश्विनी भरणी इन दोनो नक्षत्रों के चारों चरण कृत्तिका का पहला चरण अर्थात चू चे चो ला ली लू ले लो आ इनकी राशि मेष होती है। कृत्तिका के अन्तिम तीन चरण रोहिणी के चारों चरण तथा मृगशिरा के पहले दो चरण अर्थात ई उ ए ओ बा बी बे बो इनकी राशि वृष होती है। मृगशिरा के अन्तिम दो चरण आर्द्रा के चारों चरण तथा पुनर्वसु के पहले तीन चरण अर्थात का की कू घ ड. छ के को हा इनकी राशि मिथुन होती है। पुनर्वसु का अन्तिम एक चरण तथा पुष्य और आश्लेषा के चारों चरण अर्थात ही हू हे हो डा डी डू डे डो इनकी राशि कर्क होती है। मघा तथा पूर्वाफ़ाल्गुनी के चारों चरण एवं उत्तराफ़ाल्गुनी का पहला चरण अर्थात मा मी मू मो टा टी टू टे इनकी राशि सिंह होती है। उत्तराफ़ाल्गुनी के अन्तिम तीन चरण हस्त के चारों चरण तथा चित्रा के पहले दो चरण अर्था टो पा पी पू प ण ठ पे पो इनकी राशि कन्या होती है। चित्रा के अन्तिम दो चरण स्वाती चारों चरण तथा विशाखा के पहले तीन चरण अर्थात रा री रू रे रो ता ती तू ते इनकी तुला राशि होती है। विशाखा का अन्तिम चरण एवं अनुराधा तथा ज्येष्ठा के चारों चरण अर्था तो ना नी नू ने नो या यी यू इनकी राशि वृश्चिक होती है। मूल तथा पूर्वाषाढा के चारों चरण तथा उत्तराषाढ का पहला चरण अर्थात ये यो भा भी भू धा फ़ा ढा इनकी राशि धनु होती है। उत्तराषाढ के अन्तिम तीन चरण अभिजित तथा श्रवण के चारों चरण तथा धनिष्ठा के पहले दो चरण अर्थात भो जा जी जू जे जो खा खी खू खे खो गा गी इनकी मकर राशि होती है। (अभिजित नक्षत्र को उत्तराषाढ तथा श्रवण के मेल से बना माना जाता है,तथापि इसके चरणाक्षर भिन्न होते है,अत: मकर राशि के अन्तर्गत वे नौ के स्थान पर १३ गिने जाते है। धनिष्ठा के के अन्तिम दो चरण शभिषा के चारों चरण तथा पूर्वाभाद्रपद के पहले तीन चरण अर्थात गु गु गो सा सी यू से सो दा इनकी कुम्भ राशि होती है। पूर्वाभाद्रपद का अन्तिम एक चरण तथा उत्तराभाद्रपद एवं रेवती के चारो चरण अर्थात दी दू थ झ दे दो चा ची इनकी मीन राशि होती है।

लग्नादि भावों की संज्ञायें

जन्म कुंडली में १२ राशियों के बैठने के बारह भाव होते है,उनके नाम इस प्रकार से है- तनु धन सहज सुह्रत पुत्र शत्रु कलत्र मरण धर्म कर्म आय और व्यय प्रथम भाव तनु को लगन भी कहते है।

आनन्दादि योग

आनन्दादि योगों के नाम इस प्रकार से है - आननद कालदण्ड धूम्राक्ष प्रजापति सौम्य ध्वांक्ष ध्वज श्रीवत्स वज्र मुद्गर छत्र मित्र मानसाख्य पद्माख्य लुम्बक उत्पात मृत्यु काण सिद्ध शुभ अमृत मूसल गद मातंग राक्षस चर स्थिर वर्द्धमान यह अट्ठाइस योग माने जाते है। रविवार में अश्विनी से सोमवार में मृगशिरा से मंगलवार में आश्लेषा से बुधवार मे हस्त से गुरुवार मे अनुराधा से शुक्रवार में भी अनुराधा से तथा शनिवार में रेवती से आनन्द आदि योग होते है,यथा रविवार मे अश्विनी नक्षत्र हो तो आननद योग और भरणी नक्षत्र हो तो कालदण्ड योग आदि। इसी प्रकार से सोमवार आदि से क्रमश: समझ लेना चाहिये।

अमृत योग

रविवार को हस्त सोमवार को मृगशिरा मंगलवार को अश्विनी बुधवार को मैत्र गुरुवार को पुष्य शुक्रवार को रेवती तथा शनिवार को रोहिणी नक्षत्र हो तो ऐसा योग अमृत योग कहलाता है,तथा सर्वसिद्धि प्रदायक होता है।

सिद्धि योग

शुक्रवार को नन्दा अर्थात १ ६ ११ बुधवार को भद्रा अर्थात २ ७ १२ शनिवार को रिक्ता अर्थात ४ ९ १४ मंगलवार को जया अर्थात ३ ८ १३ और गुरुवार को पूर्णा अर्थात ५ १० १५ तिथि हो तो उसे सिद्ध योग समझना चाहिये। यह शुभदायक योग होता है.

गडान्त योग

नन्दा १ ५ ११ तिथि के आदि एवं पूर्णा ५ १० १५ तिथि अन्त की एक एक घटी मिलकर दो घटी का तिथि गडान्त होता है यह शुभकार्यों मे वर्जित है। ज्येष्ठा आश्लेषा और रेवती के अन्त की एक एक घटी क्रमश: मूल मघा तथा अश्विनी के आदि की एक एक घटी से मिलकर दो घटी का नक्षत्र गडान्त होता है,यह भी शुभ कार्यों में त्याज्य है। मीन वृश्चिक तथा कर्क के अन्त की आधी आधी घटी क्रमश" मेष धनु तथा सिंह लगन के प्रारम्भ की आधी आधी घटी से मिलकर लगन गडान्त होता है। यह भी शुभ कार्यों में त्याज्य है। उक्त तिथि नक्षत्र एवं लगन मे जन्म लेने वाला जातक जीवित नही रहता परन्तु शान्त कर्म आदि के प्रभाव से जीवित बच जाये तो बहुत धनी होता है।

क्रकच योग

तिथि और वार के अंको का योग यदि तेरह होता है तो क्रकच योग की उत्पत्ति होती है,जैसे रविवार को द्वादसी सोमवार को एकादशी मंगलवार को दसवीं बुधवार को नवमी गुरुवार को अष्टमी शुक्रवार को सप्तमी शनिवार को षष्ठी हो तो क्रकच योग की उत्पत्ति होती है,यह योग अशुभ माना जाता है।

संवर्त योग

रविवार को सप्तमी तिथि और बुदवार को प्रतिपदा तिथि में संवर्त नामक योग बन जाता है,यह योग भी शुभकार्यों मे वर्जित है।

यमघण्ट योग

रविवार को मघा सोमवार को बिशाखा मंगलवार को आर्द्रा बुधवार को मूल गुरुवार को कृत्तिका शुक्रवार को रोहिणी तथा शनिवार को हस्त नक्षत्र हो यमघण्ट योग की उत्पत्ति होती है। यह योग भी शुभकार्यों मे वर्जित है।

मृत्यु योग

रविवार मंगलवार को नन्दा शुक्रवार सोमवार को भद्रा बुधवार को जया गुरुवार को रिक्ता शनिवार को पूर्णा तिथि हो तो इस योग में मृत्यु योग की उत्पत्ति हो जाती है।
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