देवी ऋण की व्याख्या

देवी ऋण

लालकिताब में देवी ऋण का विशेष उल्लेख मिलता है,उसके अन्दर तो केवल इतना कहा गया है कि "बुरी नियत के कारण दूसरे के बेटे या कुत्ते को मारने का प्रयास किया जाय या मार दिया जाय तो देवी ऋण जातक के लिये अपना असर चालू कर देता है",इस ऋण का खुलासा कुण्डली का छठा भाव कर देता है,इस भाव में चन्द्र या मंगल अगर विराजमान हैं, तो समझ लीजिये कि पिछले जन्म की इसी करतूत के कारण देवी ऋण प्रभावी है,इसके असर के लिये लिखा है कि अगर जातक के जीवन में देवी ऋण चल रहा है,तो जातक की नर संतान का नास होता है,पहले तो उसके नर संतान पैदा ही नही होती है,अगर होती भी तो रहती नही,रहती भी है तो लूली लंगडी या अपंग बन कर किसी काम की नही होती है,जीवन में केवल लडकियां पैदा हो जाती है,और वे स्वेच्छाचारी की तरह से जीवन को व्यतीत करती है और अपना हिसाब चुकाकर चली जाती हैं।

केतु की संसार में श्रेणियां

कहावत है जो पूंछ रखता है उसकी ही पूंछ होती है,सांप के शरीर में पूंछ का ही आकार होता है,हाथी की पूंछ तो छोटी होती है और मुंह लम्बी पूंछ का रूप होता है,जानवर,कीडे मकोडे जिनके भी पूंछ होती है,वह केतु की श्रेणी में आजाते है,यह तो जीव जगत में माना जा सकता है,लेकिन मानव के अन्दर भी केतु की श्रेणी होती है,लेकिन वह बिना पूंछ का होता है,जब पूंछ ही नही होती है तो केतु की उपाधि किस प्रकार से दी जा सकती है,केतु का काम अपनी पहिचान सीधे रूप में नही देना होता है,वह अगर पूंछ के रूप में है तो किसी के अन्दर ही लगी होगी,अकेली पूंछ तो नही रह सकती है,छिपकली की पूंछ अगर टूट भी जाती है,तो कुछ समय के लिये तो फ़ुदकती है,लेकिन वह फ़िर से मर कर ठंडी हो जाती है,सांप की पूंछ की लम्बाई नापी ही नही जा सकती है,फ़न के बाद पूंछ का ही नम्बर आजाता है,यानी नाम के पीछे ही पूंछ होती है,चिडिया की पूंछ,केवल कुछ पंख से ही जानी जाती है,पंख हटा दिये जाते है तो वह बंडी कहलाती है,इसी तरह से जिसके नाम का बखान प्रमुख हो उसी का नाम पहले चलता है,मानव केतु की उपाधि में जब आ जाता है जब वह किसी अन्य के नाम से जाना जावे,सर्व प्रथम संसार के सभी कामों और कारणों का कारक गणेशजी को माना जाता है,सभी काम उनके नाम से ही चलते है,सबसे पहले उनका ही नाम लिया जाता है,तो गणेशजी का काम है,तो वह गणेशजी के साथ जुडा है,यानी हर काम का कारक गणेशजी है,राहु से एक सौ अस्सी अंश की फ़िक्स दूरी पर केतु की स्थिति हमेशा मिलती है,यानी हर काम के आगे आने वाला ही राहु है अगर केतु पूंछ है तो,सही भी है,ज्योतिष भी कहती है,राहु अनन्त है,जिसका कहीं अन्त नही है,पूर्वज को राहु कहा जाता है,पूर्वज का कोई अन्त नही है,किसी न किसी तरह से जब पीढियों को देखा जाता है,तो आखिर में जाकर कांटा एक ही जगह इकट्टा हो जाता है,और मानना पडता है कि सभी एक ही तराजू के चटरे बटरे है,सही भी है,देवी ऋण की बात कर रहे थे,एक संकुचित विचार का काम करना था,चल दिये एक बहुत बडे काम को करने के लिये,सीधे रूप से जाना जाता है कि बहिन का लडका अगर मामा के घर आ जाता है तो उसके बाप का नाम कोई नही लेती है,केवल बहिन का ही नाम लिया जाता है और कहा जाता है कि फ़लां की लडकी का लडका है,उसी तरह से जब भाई अपनी बहिन के घर जाता है तो वहां पर भी बहिन का नाम लेकर ही कहा जाता है कि अमुक की बहू का भाई है,और जब मामा के लिये कहा जाता है तो कहा जाता है कि अमुक का मामा है,पुत्र के लिये भी कहा जाता है कि अमुक का लडका है,इस प्रकार से जो किसी नाम के पीछे चले वह केतु कहा जाता है,फ़िर इस संसार में बचा ही कौन है जो केतु की श्रेणी में नही आता है,और जब हम किसी भी प्रकार से किसी भी जीव को परेशान करेंगे तो हम भी किसी केतु को ही परेशान कर रहे है,और हम पर देवी ऋण चालू हो गया, उसी प्रकार से अगर पिता को पुत्र परेशान करता है तो वह भी किसी के पुत्र को परेशान कर रहा है,किसी के पति को परेशान कर रहा है,किसी के भाई को परेशान कर रहा है,उसका पिता भी किसी का भांजा तो होगा ही,किसी का मामा तो होगा ही,इसलिये पुत्र भी परेशान होगा,और जब पुत्र परेशान होता है तो पिता को दुख भी होता है,यह सब लालकिताब की एक संकुचित कल्पना के अलावा और कुछ नही माना जा सकता है,देवी का रूप समझ कर ही किसी प्रकार का देवी ऋण बताने की कोशिश करनी चाहिये,केवल केतु को परेशान करने से देवी ऋण नही माना जा सकता है|

देवी ऋण को उतारने का वैदिक तरीका

रुद्रयामल महातन्त्र के अन्तर्गत चण्डिका शाप विमोचन मन्त्र

श्रीदुर्गा-पाठ को करने से पहले अगर इन बीस श्लोकों को पढ लिया जावे तो किसी प्रकार से देवी की पूजा के प्रति की गयी भूल से मिला श्राप खत्म हो जाता है,अक्सर श्रीदुर्गा पूजा में किसी न किसी प्रकार का विघ्न तभी पडता है ,जब जानबूझ कर या किसी कारण वश पूजा में अशुद्धि या किसी कन्या को बेकार में परेशान किया जाता है।

शाप-विमोचन संकल्प

ऊँ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमोचन मन्त्रस्य वसिष्ठनारदसंवादसामवेदाधिपतिब्रह्माण ऋषय: सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्रीं शक्ति: त्रिगुणात्मस्वरूपचण्डिकाशापविमुक्तो मम संकल्पितकार्यसिद्धयर्थे जपे विनियोग:।

शापविमोचन मन्त्र

ऊँ (ह्रीं) रीं रेत:स्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१॥
ऊँ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै,ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥२॥
ऊँ क्षुं क्षुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥३॥
ऊँ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥४॥
ऊँ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥५॥
ऊँ तं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥६॥
ऊँ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥७॥
ऊँ जां जातिरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥८॥
ऊँ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥९॥
ऊँ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१०॥
ऊँ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफ़लदात्र्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥११॥
ऊँ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१२॥
ऊँ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१३॥
ऊँ माँ मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमासहितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१४॥
ऊँ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१५॥
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नम: शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१६॥
ऊँ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फ़ट स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१७॥
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नम:॥१८॥
इत्येवं हि महामन्त्रान पठित्वा परमेश्वर,चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशय:॥१९॥
एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति य:,आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशय:॥२०॥

(श्रीदुर्गामार्पणामस्तु)

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