मंत्रात्मक श्री दुर्गा-सप्तशती
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परमपूज्य श्रीबाबा-श्री

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मेरे पूज्य पिताश्री स्व.श्री शिवराम सिंह

दो शब्द

श्री दुर्गा सप्तशती का प्रस्तुत संस्करण गुप्तावतार पूज्य बाबा श्री द्वारा अपने प्रिय स्वदेश भारतवर्ष के प्रति दिया गया एक अनूठा और अद्वितीय उपहार है। इसकी पाण्डु लिपि आपने अपने कर कमलो से उस विलक्षण अनुष्ठान के लिये तैयार की थी,जिसके सम्पन्न होने के फ़लस्वरूप ही संवत १९९९ वि. सन १९४२ में भारत छोडो आन्दोलन हुआ और भारत स्वतंत्र हुआ। पूज्य चरण बाबा मोतीलाल जी महाराज ने श्रीदुर्गा सप्तशती के इस संस्करण के सम्बन्ध मे अपने कर कमलों से लिखित रजिस्टर के प्रारम्भ में लिखा है कि -
हिमालय के प्रवास में नेपाल की तिब्बती सीमा पर एक ब्राह्मण नेवार शिष्य साधक ने मन्त्रात्मक सप्तशती की यह प्रति मुझे दी जो अपने ढंग की अनूठी है,यह पाण्डुलिपि संवत ११२१ वि. यानी सन १०६४ ई. की थी।

मन्त्रात्मक सप्तशती के प्रस्तुत संस्करण को भाबा श्री ने संवत १९८१ वि सन १९२४ ई में काशी में पुन: लिपि बद्ध किया था। इसमें उन्होने विस्तार पूर्वक श्रीद्र्गा सप्तशती के ७०० मन्त्रों का सम्पूर्ण पूजा विधान व आहुति प्रकार लिखा। दैव योग से बाबा श्री द्वारा लिखित रजिस्टर श्री चण्डी धाम में आज भी सुरक्षित है।

यहाँ उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत मन्त्रात्मक सप्तशती में प्रत्येक मंत्र के अनुष्ठान की जो विधि दी गयी है,वह देखने से ही बडी वैज्ञानिक प्रतीत होती है। साधकों को सुविधा के लिये प्रत्येक मन्त्र का विधान और अधिक स्पष्ट रूप में अलग अलग प्रकाशित किया जा रहा है,इससे कोई भी श्रद्धालु व्यक्तिसहज ही अपने अभीष्ट मन्त्र का अनुष्ठान कर लाभ उठा सकता है।

अन्त मे यह लिखना आवश्यक है कि लोगों को अपने गुरु देव की अनुमति प्राप्त कर ही मन्त्रात्मक सप्तशती के अनुसार किसी अनुष्ठान में प्रवृत्त होना चाहिये।

प्रयागराज -कुलभूषण

परिचय

हम सबको उपहार स्वरूप मन्त्रात्मक सप्तशती देने वाले पूज्य बाबा श्री का जन्म सं १९४१ विक्रमी को श्रावण शुक्ला त्रयोदशी को हुआ था। आज उनकी १२७ वीं जयन्ती के पावन अवसर पर मन्त्रात्मक सप्तशती के इन्टरनेट संस्करण को लिखने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ है। यह किताब श्री श्याम सुन्दर भुवालका जी कलकत्ता वालों की तरफ़ से बहुत पहले मुझे दी गयी थी। इसके बारे में अधिक विस्तार से बताने वाले लाल बाबा रतनगढ वाले आज हमारे बीच नही है जिन्होने मुझे दस विद्या की जानकारी भुवालका जी के कलकत्ता निवास पर दी थी।

पूज्य बाबा श्री मन्त्र शास्त्र के गहन ज्ञाता होने के साथ ही परम देश भक्त भी थे। बाबा श्री चरितामृत नामक आपके परिचय ग्रन्थ में आपके सम्बन्ध में सन १९२७ से सम्पर्क में रहने वाले श्री यशवन्त केशव प्रधान लिखते है कि -
"……..सन १९३० में जिन दिनो सारे देश में महात्मा गांधी का आन्दोलन प्रारम्भ होकर उच्च स्थिति को प्राप्त कर रहा था,उन दिनो श्री बाबा जी महाराज सदा चिन्ता ग्रस्त मालुम होते थे। भारत वर्ष की भावी स्थिति के सम्बन्ध में वे सदैव चिन्त्तित रहते थे। मेरे देखने में जो श्रेष्ठ उपासक पुरुष साधु सन्त इत्यादि अब तक आये है,उनमे से अधिकांश अपनी स्वयं की उन्नति किस प्रकार हो सकती इसी विचार में मग्न रहने वाले रहे है। भारत का पुनुरुत्थान कैसे होगा और कैसे किया जाये ? इस प्रकर का विचार करने वाले केवल बाबाजी महाराज मिले। उनके जैसा अपने शिष्य की उन्नतावस्था के लिये सदा दूक्ष द्रिष्टि से विचार करने वाला और साथ ही शाथ अपने राष्ट्र के सम्बन्ध मे विचार करने वाला सन्त मेरे देखने में तथा अध्ययन करने में अन्य कोई नही हुआ।

पूज्य श्री बाबाजी ने भारत के उत्थान के लिये शत चण्डी यज्ञ भी किया था,इस्के लिये उनके निर्देशानुसार निम्न संकल्प के अनुसार चैत्र पूर्णिमा के दिन अनुष्ठान प्रारम्भ हुआ यथा -

"मम देशस्य क्षेम स्थैर्यायुरारोग्यामिवृद्धयर्थ श्री जगदम्बा योग माया-भगवती दुर्गा प्रसाद सिद्धयर्थ च नमो युत प्रणव वाग बीज स्व बीज लोम विलोम पुटितोक्त शरणागत सम्पुटित श्रीसप्तशत्यन्तर्गत अमुक (श्लोक संख्या) मन्त्र जपे विनियोग:।"

पूज्य श्री बाबाश्री ने हमे उक्त संकल्प के साथ्ही सप्तशती के श्लोक पाठ भी दिखलाये। श्लोकों का अर्थ बताने के साथ साथ किन किन कार्यों में इन श्लोकों का अनुष्ठान किया जाता है व किसने किसने ऐसे अनुष्ठान किये है,इस सबका उन्होने वर्णन किया। प्रत्येक श्लोक का कौन कौन सा गुण है कौन सी इन्द्रिय है कौन सा रस है,कौन सी कर्मेन्द्रिय है कौन सा स्वर है कौन से तत्व है कौन सी कला है कौन सी मुद्रा है और क्या ध्यान है ? इत्यादि समस्त बातें जब बाबा श्री ने हमे बता दीं तब हम सब लोगों ने मन्त्र के द्वारा आहुति दी।

इस प्रकार दस आदमी दस बार मन्त्र पढकर आहुति देते थे। नित्य दश श्लोक होते थे और अन्त में आरती आदि होने के पश्चात प्रसाद बांटा जाता था। फ़िर राज के एक बजे के बाद सारा समूह बाबाजी के साथ सागर के किनारे शमशान भूमि के पास बैठता था और प्राय: प्रात: चार बजे हमें बांदरा स्टेशन पहुंचना दिया जाता था।

उक्त अनुष्ठान के पूर्ण होने में लगभग तीन महिने लग गये। अनुष्ठान के पूर्ण होने पर पूज्य बाबाजी के निर्देशों से ऐसा आभास हुआ कि कि इसी प्रकार के और भी महत्य के अनुष्ठाओं का योग आयेगा।

दूसरा अनुष्ठान श्रावण मास में आरम्भ हुआ था। इस बार किसी यन्त्र की प्रतिष्ठा नही की गयी। चांदी का एक विशाल कुम्भ जो पहले के कुम्भ से अधिक बडा था एक यन्त्र पर स्थापित किया गया था। इस दूसरे अनुष्ठान का संकल्प तीव्र था। भगवती योग माया दुर्गा देवी के प्रसाद से स्वदेश के शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर देश की स्वतन्त्रता के लिये पूर्ववत बीज सहित प्रत्येक श्लोक की = इत्यं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति। तदा तदावतीर्याऽहं करिष्याम्यारि संक्षयम।" इस मन्त्र से सम्पुटित कर अनुष्ठान किया गया।

बाबाजी ने कुछ श्लोकों के लिये -

"कु-नीतिन: ब्रिटेनस्य,गृहीत्वा त्वमुपागता। लोकेषु विनाशाय ख्याता देवि! भविष्यसि॥"

उक्त पाठ को लेकर हवन किया था। कुछ समय के बाद मैने महाराज श्री से पूछा था कि - इस यज्ञ की फ़लद्रूपता कब होगी ? उन्होने बताया था कि "अभी और तम बाकी है,तीसरा अनुष्ठान हो जाये,तो जल्दी ही सिद्धि प्राप्ति होगी। नही तो तम निरसन होने में नौ या ग्यारह वर्ष लगेंगे",ऐसा ही हुआ। ग्यारह वर्षों के बाद आठ अगस्त १९४२ को भारत छोडो आन्दोलन की शुरुआत हुयी और आगे नौ वर्षों की अवधि के भीतर ही स्वराज मिल गया और छब्बिस जनवरी १९५० भारतीय गणराज्य की स्थापना भी हो गयी।…"

स्पष्ट है कि बाबाश्री द्वारा प्राप्त प्रस्तुत मन्त्रात्मक सप्तशती नामक विधान अत्यन्त विलक्षण है। इसके द्वारा पूज्य बाबा श्री ने भारत की स्वतन्त्रता हेतु अनुष्ठान कर हमें प्रेरणा दी है,वह अपने आप में अपूर्व एवं पूर्णतया फ़लप्रद है। मन्त्रात्मक सप्तशती जैसे सांगोपांग अनुष्ठान के द्वारा हम अपना एवं अपने देश का अभीष्ट कल्याण करें,यही बाबा श्री की इच्छा थी। हमे बाबा श्री की इस इच्छा को सदैव ध्यान में रखना चाहिये।

प्रयागराज ऋतशील शर्मा

साधना की कुछ विशेष बातें

  • मन्त्रात्मक सप्तशती में श्रीदुर्गा सप्तशती के प्रत्येक मन्त्र का सर्वश्रेष्ठ विधान है,इसमें मन्त्र के १४ अंगों का वर्णन है,यथा -१. ऋषि,२. देवता,३. बीज,

४. शक्ति,५. महाविद्या,६. गुण, ७. ज्ञानेन्द्रिय, ८. रस, ९. कर्मेन्द्रिय १०. स्वर, ११. तत्व, १२. कला, १३. उत्कीलन, १४. मुद्रा, मन्त्र के इन १४ अंगों से तादात्म्य स्थापित होने पर श्रीजगदम्बा योगमाया भगवती दुर्गा की कृपा प्राप्त होती है।

  • मन्त्र का पहला अंग ऋषि होता है । ऋषि शब्द गत्यर्थक ऋ धातु और षिंड. प्रापणे प्रत्यय से बना है,जिससे उस परम साधक का बोध होता है,जो मन्त्र की वास्तविक गति से परमात्मा के स्वरूप को स्वयं प्राप्त करता है एवं कराता है। इस प्रकार किसी मन्त्र को सिद्ध करने के लिये मन्त्र के ऋषि से तादाम्त्य स्थापित करना परम आवश्यक है।
  • देवता मन्त्र का दूसरा अंग है इसके द्वारा साधक को देव भाव की प्राप्ति होती है।
  • बीज मन्त्र के स्फ़ुरण एवं विकास का केन्द्र है,इसकी अपने में स्थापना होने से ही अभीष्ट फ़ल की प्राप्ति होती है।
  • शक्ति मन्त्र की क्रिया शक्ति का बोधक है इससे तादात्म्य होने पर साधक की क्रिया शक्ति मन्त्र मय हो जाती है।
  • महाविद्या मन्त्र की मूल प्रकृति की सूचक है इससे तादात्म्य होने पर साधक की प्रकृति भी मन्त्र मय हो जाती है।
  • गुण ज्ञानेन्द्रिय रस कर्मेन्द्रिय स्वर तत्व कला मन्त्र के अन्य विशिष्ट अंग है,इनसे तादात्म्य होने पर साधक का मन्त्र से सीधा सम्बन्ध हो जाता है।
  • मन्त्र का ऊर्जा स्वरूप उत्कीलन द्वारा हस्तगत होता है,इससे तादात्म्य स्थापित होने पर मन्त्र की ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है।
  • मन्त्र की ऊर्जा सतत प्रवाहित होने के लिये मन्त्र की प्रसन्नता कारक शक्ति मुद्रा का ज्ञान होन आवश्यक है,अत: सम्पूर्ण शरीर में इसकी प्रतिष्ठा की जाती है।
  • अभीष्ट फ़ल की प्राप्ति साधक के प्रार्थना भाव की गहराई पर न्रिभर होती है,अत: अंजलो यानी प्रार्थना मुद्रा में जुडे दोनो हाथों मे इसका न्यास किया जाता है।
  • मन्त्र के अक्षरों को छ: भागों मे विभाजित करके छ कर अंगों १. अंगूठा २. तर्जनियों ३. मध्यमाओं ४. अनामिकाओं ५. कनिष्ठाओं ६. करतल पृष्ठों में तथा छ: प्रधान अंगों १. ह्रदय २. शिर ३. शिखा ४. कवच ५. नेत्र ६. अस्त्र में प्रतिष्ठित किया जाता है।
  • अंगुष्ठाभ्याम नम: ह्रदयाय नम: का तात्पर्य है कि भावना मय देवता के समक्ष साधक सब प्रकार से अपनी विनम्रता प्रकट करता है।
  • तर्जनीभ्याम नम: और शिरसे स्वाहा का तात्पर्य है कि साधक क्षुद्र अहन्ता के स्थान पर दिव्य अहन्ता का अनुभव करता है।
  • मध्यमा वषट शिखायै वषट के द्वारा साधक आत्मा के दिव्य तेजोमय स्वरूप का अनुभव करता है,वषट का अर्थ समर्पण है।
  • अनामिकाभ्याम हुम और कवचाय हुम के द्वारा साधक अपने तेजोमय स्वरूप के सुरक्षित होने की भावना करता है,इससे साधक में दूसरों के लिये भय प्रद और अपनेलिये रक्षा कारक तेज का प्रादुर्भाव होता है।
  • कनिष्ठकाभ्याम वौषट और नेत्र त्राय वौषट के द्वारा साधक मन्त्र रूपी आत्मशक्ति का साक्षात्कार करता है।
  • करतल कर पृष्ठाभ्याम फ़ट और अस्त्राय फ़ट के द्वारा साधक अपने तीनो प्रकार के तापों को दूर फ़ेंक कर मन्त्र शक्ति की ज्ञानाग्नि में जलाकर भस्म करने की भावना करता है।

इस प्रकार से साधना करने से अभीष्ट फ़ल की प्राप्ति निश्चित होती है। पूज्य बाबाश्री ने श्रीदुर्गा सप्तशती के प्रत्येक मन्त्र हेतु हमें पूर्ण विधान उपहार स्वरूप दिया है। हम सबको इस दिव्य विधान द्वारा अपना एवं देश का अभीष्ट कल्याण सिद्ध करना चाहिये। श्रीदुर्गा सप्तशती के श्लोकों मे कल्याणकारी भाव छिपे है,किसी अभीष्ट कल्याण कारी श्लोक को मन्त्रात्मक सप्तशती के विधान के अनुसार प्रत्येक श्लोक के साथ सम्पुटित कर विशिष्ट अभीष्ट फ़ल प्राप्त कर सकते है।

किसी विशिष्ट अभीष्ट फ़ल की कामना नही होने पर केवल माँ दुर्गा की कृपा एवं अपने कल्याण की कामना हो तो प्रस्तुत विधान के द्वारा प्रतिदिन निश्चित संख्या में एक एक मन्त्र का अनुष्ठान करने से विशेष अनुभूतियों की प्राप्ति होती है। यदि हवन करना सम्भव नही हो तो उसके स्थान पर दशांस जाप अधिक करना चाहिये। इस प्रकार क्रमश: एक एक मन्त्र का अनुष्ठान कर सभी ७०० मन्त्रों का अनुष्ठान अकेले पूरा किया जा सकता है। जो बन्धु समर्थ हो वे यज्ञ की भांति इससे अनुष्ठान कर या करवा सकते है। दस या दस से अधिक योग्य व्यक्तियों का सहयोग लेकर सभी मन्त्रों का अनुष्ठान कुछ ही दिनो में सम्पन्न किया जा सकता है।

अन्त में यह उल्लेखनीय है कि बाबाश्री के अनुसार प्रस्तुत मन्त्रात्मक सप्तशती का विधान मुख्यत: ऊर्ध्वाम्नायोक्त है। अत: इसका प्रयोग क्षुद्र कामनाओं के लिये नही करना चाहिये,व्यक्ति समाज राष्ट्र के वास्तविक कल्याण हेतु ही इसका अनुष्ठान करना चाहिये।

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महाकाली

प्रथम चरित विधानं

विनियोग
ऊँ प्रथम चरितस्य श्रीब्रह्मा ऋषि: महाकाली देवता गायत्री छन्द: नन्दा शक्ति: रक्त दन्तिका बीजं अग्नितत्वं ऋग्वेद: स्वरूपं श्रीमहाकाली प्रीत्यर्थं जपे विनियोग: ।
ऋष्यादि न्यास
श्री ब्रह्मा ऋषये नम: शिरसि,श्रीमहाकाली देवतायै नमं ह्रदि,गायत्री छन्दसे नम: मुखे,नन्दा शक्तयै नम: नाभौ,रक्त दन्तिका बीजाय नम: लिंगे,अग्नि तत्वाय नम: गुह्ये,ऋग्वेद स्वरूपाय नम: पादौ,श्रीमहाकाली प्रीत्यर्थं जपे विनियोगाय नम: सर्वांगे।

षडंग न्यास: कर न्यास: अंग न्यास:
खंगिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा,शंखिनी चापिनी बाण भुशुण्डी परिघायुधा अंगुष्ठाभ्याम नम: ह्रदयाय नम:
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खडगेन चाम्बिके,घण्टा स्वनेन न: पाहि चाप ज्या नि: स्वनेन च तर्जनीभ्याम स्वाहा शिरसे स्वाहा
प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे,भ्रामणेनात्म शूलस्य उत्तरस्यां तथेस्वरि मध्यमाम वषट शिखायै वषट
सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते,यानि चात्यर्थ घोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवं अनामिकाभ्यां हुम कवचाय हुम
खडग शूल गदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके,कर पल्लव संगीनि तैरस्मान रक्ष सर्वत: कनिष्ठकाभ्याम वौषट नेत्रत्राय वौषट
सर्व स्वरूपे सर्वेशे सर्व शक्ति समन्विते,भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते करतल कर पृष्ठाभ्याम फ़ट अस्त्राय फ़ट

ध्यानम

खडगं चक्र गदेषु चाप परिघांछूलं भुशुण्डीं शिर:,
शंखं सन्दधतीं करैस्त्रि नयनां सर्वांग भूषावृताम।
नीलाश्म द्युतिमास्य पाद दशकां सेवे महाकालिकाम,
यामस्तीत स्वपिते हरो कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम॥

दक्षिणाम्नाय मते आयुधानि

दक्षिण करे - खडक चक्र गदा इषु चाप
वाम करे - परिघ शूल भुशुण्डी शिर: शंख।

ऊर्ध्वाम्नाय मते आयुधानि

दक्षिण करे- खडग गदा चाप शूल शिर:,
वाम करे - चक्र इषु परिघ भुशुण्डी शंख।

मंत्रात्मक सप्तशती के ७०० श्लोकों का विवेचन

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